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।। ब्रह्म वेदी ।।

कंठ कंवल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नास ही।
लील चल मध्य काल कर्मं, आवत दम कूंफास ही।।6।।

हृदय कमल से उपर कण्ठ कमल है। जहां अविद्या का निवास है। इस अविद्या के कारण प्राणी की बुवि भ्रमित होती है। जिसके कारण प्रभु का ज्ञान ध्यान प्राणी को भूल जाता है। कण्ठ कमल का नीला रंग है और यह सोलह पंखुड़ियों का कमल है। इस कमल में जन्म-मरण का कारण बनने वाले कर्म हैं। मौत के समय दम को रोक कर आत्मा के प्राण इस कमल में से यमदूत निकालकर ले जाते हैं। प्रभु के ज्ञान और ध्यान के बल से इस कमल में से अविद्या और कालकर्मों को नष्ट किया जाता है। काल की पहुंच इस कंवल तक ही है। इससे उपर नहीं है।

त्रिकुटी कंवल परमहंस पूर्ण, सतगुरू समरथ आप हैं।
मन पवना सम सिंध मेलो, सुरति निरत का जाप हैं।।7।।

नाक से उपर दोनों आंखों के मध्य त्रिकुटी कमल है। यहां इल़ा, पिंगला और सुष्मना तीनों नाड़ियां इक्ट्ठी होती हैं। इसी कारण इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है। यहां परम हंस पूर्ण ब्रह्म सतगुरू देव स्वयं बिराजमान हैं। यह दो पंखुड़ियों का कंवल है। सुर्ति शब्द योग के जानकार गुरूद्वारा बताई गई युक्ति से मन, पवन को सुर्ति निरत से जोड़कर गुरू शब्द का जाप करते हुए इस कमल में स्थिरता की जाती है।

सहंस कंवल दल आप साहिब, ज्यौं फूलन मध्य गंध है।
पूर रहा जगदीश योगी, सत्य समरथ निरबंध है।।8।।

त्रिकुटी कमल के उपर सिर के उपरी भाग में दशम द्वार है जिसे सतगुरू जी सहस कंवल कहते हैं। यह हज़ार पंखुड़ियों का कमल है। इस कमल में पारब्रह्म प्रभु समर्थ साहिब इस तरह विराजमान हैं जिस तरह फूलों के मध्य सुगंधि विराजमान रहती है। समस्त जगत के स्वामी सत्यपुरूष समर्थ प्रभु जो किसी बंधन में नहीं है इस कंवल में पूर्ण रूपेण विराजमान है।

मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पंथ की बाट है।
इला पिंगुला सुष्मण खोजो, चल हंसा औघट घाट है।।9।।

इस काया में सूक्ष्म प्रभु को खोजना उल्टे मार्ग चलना है अर्थात् जिस तरह मछली तेज़ चलते हुए पानी में उल्टी दिशा को चलती है। इसी तरह सतगुरू जी कहते हैं कि अपने श्वासों को उल्टा कर सहस्त्र दल कमल में स्थिर करें। इड़ा पिंगला और सुष्मना के मार्ग चलते हुए इस दुर्गम घाटी को पार करके दशम द्वार में प्रभु के दर्शन करो।

ऐसा योग वियोग वरणौं, जो शंकर नैं चित्त धर्या।
कुंभक रेचक द्वादश पलटे, काल कर्म तिस तैं डर्या।।10।।

सतगुरू गरीब दास जी ऐसे योग का वर्णन करते हैं जिसे प्रभु के बिरह-वियोग में शंकर महादेव जी ने अपने चित्त में धारण किया था। यह प्राण-अपान द्वारा उपासना है। मनुष्य का श्वास हृदय में से उठकर नाक से बाराह अंगुल बाहर तक जाता है और फिर उल्ट कर हृदय में आ जाता है। बाहर जाता हुआ श्वास गर्म तत्व जिसको प्राण कहा जाता है और वापस अन्दर आता हुआ श्वास शीत तत्व जिसे अपान कहते हैं। हृदय के अंदर और बाहर यह प्राण-अपान, पूरक और रेचक ;खाली करना करते हुए हमेशा अपनी चाल से चलते रहते हैं। जब तक मनुष्य जीवित रहता है, यह लिया लगातार चलती रहती है। जिस समय यह श्वास अपने तत्व को पलटते हैं, उससमय जो एक-दो पल होते हैं उन्हें कुम्भक कहा जाता है। इस कुंभक के पल में जो ध्यान लगाता है वही आत्म-तत्व का अनुभव करता है। इस युक्ति के जानकार साधक से काल और कर्म डरते हैं।

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